व्यंग्य
जी हाँ, मैं हूँ आम आदमी
(एक पोस्ट में दो व्यंग्य ) यही होता है कमाल
जी हाँ, मैं आम आदमी हूँ। शत प्रतिशत आम आदमी। मेरी सेहत एकदम बढि़या रहती है क्योंकि आम आदमी हूँ ना घर में इन्वर्टर रखने की हैसियत ही नहीं है इसलिए बिजली जाने पर घर के बाहर ताजी हवा लेता हूँ इसीलिए मेरा श्वसन एवं फेफडे़ एकदम मस्त और दुरूस्त हैं।
तोंदनुमा पेट मेरा है नहीं क्योंकि फास्ट फूड़ तो अमीरों के चोचलें हैं हम तो भर्इ, प्याज रोटी खाते हैं और सुखी रहतें हैं। अरे हाँ….. मुझे चश्मा भी नहीं लगा हुआ। आम आदमी हूँ ना सारा दिन टेलिविज़न से चिपका नहीं रह सकता हूँ। इसलिए मेरी आंखें बिना चश्मे के सुचारू रूप से कार्य कर रही हैं।
आम आदमी हूँ ना इसलिए मेरा किसी से लेन-देन नहीं है ना ही बैंक से रूपया उधार लिया हुआ है इसलिए चैन से सोता हूँ और सुबह ही आँख खुलती है। अपने पड़ोसी को देखकर मैं जलता नहीं हूँ। वो अलग बात है कि मेरे पास सार्इकिल रूपी सवारी है जबकि मेरे पड़ोसी के पास कुछ भी नहीं है।
चुनावों में तो हम आम आदमियों के मजे ही मजे होते हैं क्योंकि उन दिनों नेता हम आम लोगों के घर ही तो दर्शन देते हैं और अपनी तस्वीरें हमारे साथ खिंचवा कर गर्व का अनुभव करतें हैं। अब भर्इ, चूंकि मैं आम आदमी हूँ, पहचान तो कोर्इ है नहीं……….। इसलिए अपने शहर की तीनों-चारों चुनावी पार्टियों के साथ हूँ। कभी किसी के साथ नाश्ता तो कभी दूसरी पार्टी में जा कर चाय पी आता हूँ।
हर सभा में मैं जाता हूँ……..अरे भर्इ……….भाषण सुनने के लिए नहीं……….. बलिक भाषण के बाद बढि़या बैनर फाड़ने के लिए ताकि घर में वो परदे का काम दे जाए। सब्जी की रेहड़ी वाले मुझसे सब्जी का रेट भी ठीक लगाते हैं क्योंकि हाथ में थैला होता है और सार्इकिल से उतरता हूँ वहीं दूसरी ओर जब बड़ी-बड़ी गाडि़यों वाले गाड़ी से उतरते हैं सब्जी लेने के लिए, तो अचानक सबिजयों के दाम एकदम चार गुणा तक पहुँच जाते हैं।
शहर में हर रोज जो हड़ताले होती रहती हैं मैं उसका अहम हिस्सा हूँ जब कहीं हड़ताल या ज्ञापन देना जाता हूँ या फिर भीड़ इकटठी करनी होती है तो मैं वहां मौजूद रहता हूँ क्योंकि भर्इ गाड़ी का आना जाना फ्री और …….. और पता है अपनी दिहाड़ी मिलते ही मैं वहां से खिसक लेता हूँ।
मेरा रिकार्ड रहा है कि मैंने कभी अखबार खरीद कर नहीं पढ़ा। अब भर्इ, मैं कोर्इ खास आदमी तो हूँ नहीं कि अखबार खरीदने पर पैसे खर्च करूं। भर्इ, हर सुबह कभी किसी के दफ्तर में या लाइब्रेरी में जाकर जमकर पढ़ता हूँ। भर्इ, आम आदमी जो ठहरा। इसीलिए मजे कर रहा हूँ।
हाँ, तो मैं कह रहा था कि आम आदमी हूँ ना इसलिए किसी की शादी ब्याह हो तो कर्इ बार भीड़ का हिस्सा बनकर भरपेट भोजन भी कर आता हूँ। अब भर्इ खास आदमी तो हूँ नहीं कि शगुन भी दूं वो भी अपनी हैसियत से बढ़-चढ़ कर। हां, खाने के बाद प्लेट को किनारे पर ही रख कर आता हूँ ना कि यूं ही रख आता हूँ कि जहां लोग खा भी रहें हैं, वहीं जूठन भी पड़ी है जैसा कि आमतौर पर होता है।
आम आदमी हूँ ना इसीलिए किसी काम में संकोच नहीं करता। घर की सफार्इ हो या सड़क के आस-पास कूड़ा-कचरा ना होने देना। अब भर्इ…………. ये तो खास आदमियों के ही चोंचलें हैं कि अगर चार-पांच दिन जमादार नहीं आया तो सड़क पर गन्दगी और घर में कूड़ादान गंदा ही रहेगा। मैं घर को एकदम चकाचक रखता हूँ। भर्इ………आम आदमी जो ठहरा। तो है ना आम आदमी होने के फायदे………..तो अब आप आम आदमी कब बन रहे हैं।
कैसे लगे दो दो व्यंग्य … जरुर बताईएगा
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